संत कबीर दास
हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 से 1700 तक माना जाता है यह हिंदी साहित्य का सुवर्णीय यूग माना जाता है, इस ही काल में निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के मुख्य कवियों में से एक है संत श्री कबीर दास जी
इन के जन्म के बारे में निचित नहीं कहा जा सकता है इन का जन्म संवत 1456 के आसपास कशी में हुआ था
ऐसा कहा गया है के श्री रामानन्द स्वामी ने भूल से एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया था ब्राह्मणी ने उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास छोड़ आयी वही नीरू और नीमा नामक जुलाहा जो के मुस्लिम थे उस बच्चे को उठाया और उसका पालन किया जो आगे चल के संत कबीर दास जी कहलाए
जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी
संत कबीरदास जी भक्ति कालीन कवि थे, यह कहना गलत न होगा के व् एक क्रांतिकारी, समाज सुधारक और निर्गुण ईश्वर भक्त थे,उन्होंने अपने दोहो, कविताओ का प्रयोग समाज सुधार व् समाज में फैले पाखण्ड, आडंबरों तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए किया हालाँकि कबीर जी ने कहीं से भी शिक्षा ग्रहण नहीं की थी
मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ
कहते हैं कि, उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था । फिर भी उनकी कविता दोहे इतने प्रभावी थे की सीधे दिल और दिमाग में छा जाते बैठे जाते है न केवल उस काल में बल्कि आज भी उतना ही असर रखते है
कबीरदास जी की रचनाएँ सखी , सबद और बीजक में उपलब्द है कबीर जी ने अपनी रचनाओं में में खड़ी बोली, पंजाबी, गुजराती, राजस्थाना ब्रज तथा अवधि के शब्द प्रयोग किया है
उस समय ऐसा माना जाता था के काशी में मृत्यु होने से स्वर्ग और मगहर नामक स्थान में मृत्यु होने से नर्क मिलता है इस अंधविश्वास को समाप्त करने के उद्देश्य से कबीरदास जी मृत्यु से पहले मगहर चले गए और वहीं उनका देहान्त हो गया
उन्होंने भी जान कर ही कहा है, औरों ने भी जानकर ही कहा है-लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहस और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है। OSHO
Sant Kabir Dass |
संत कबीर दास के दोहे
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोई
मरम = भेद
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि
परनारी = दूसरी नारी ,पराई औरत
खूणैं बेसिर = कोने में बैठ के
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह
चाह = इच्छाएं मनुआ = मन ,दिल
साहन के साह = राजाओं की भी राजा महाराजा
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह
चाह = इच्छाएं मनुआ = मन ,दिल
साहन के साह = राजाओं की भी राजा महाराजा
केस कहा बिगडिया, जे मुंडे सौ बार
मन को काहे न मूंडिये, जा में विशे विकार
केस = बाल , मुंडे = सर के सारे बाल साफ करना
जा में विशे विकार= जिस में अच्छे विचार न हो
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय
एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूगी तोय
साईं इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूं साधु ना भूखा जाय
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय
जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय
पोथी पढ़ - पढ़ जग मुआ भया न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय
माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर
कर का मनका डार दे मन का मनका फेर
कर = हाथ , डार = छोड़
जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान
म्यान = जिस में तलवार रखी जाती है
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
गहरे पानी पैठ = गहरे पानी का तला, बपुरा = बेचारा
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप
चूप = चुप रहना,
धीरे-धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय
धीरे-धीरे रे मना = अपने मन को धीरे-धीरे मनाए (समझाए )
माली सींचे सौ घड़ा = माली कई 100 घड़े पानी से पेड़ को पानी देता है
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय
आँगन कुटी छवाय = आँग में कुटिया बना के देना
सुभाय = सुभाव
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार
दुर्लभ = जो कठिनता से प्राप्त होता हो
तरुवर = पेड़
बहुरि न लागे डार = फिर से डाल पर नही लगता
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर
बैर = दुश्मनी
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास
तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास
हाड़ = हड्डिया , केस = बाल
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया शरीर
आशा तिर्ष्णा न मुई, यों कही गए कबीर
कबीर तीनो लोक सब राम जपत हें, जान मुक्क्ति को धाम
राम चन्द्र वसिष्ट गुरु किया तिन कहि सुनायो नाम
कबीर तीन लोक पिंजरा भया, पाप पुण्य दो जाल
सभी जीव भोजन भये, एक खाने वाला काल
कबीर मानुष जन्म पाय कर, नहीं रटे हरी नाम
जैसे कुआँ जल बिना खुदवाया किस काम
चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय
साधू कहावन कठिन है लम्बा पेड़ खजूर
चढ़े तो चखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर
आए है तो जाएगे राजा रंक फाकिर
एक सिंहासन चढी चले एक बाधे जंजिर
कबीर कहा गरबियो काल गहे कर केस
ना जाने कहाँ मारिसी कै घर कै परदेस
कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद लियो बनाये
चढ़ कर मुलाह बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाए
कबिरा गरब न कीजिये कबहूँ न हंसिये कोय
अबहूँ नाव समुद्र में का जाने का होय
काल करे सो आज कर आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी बहुरि करेगो कब
कुटिल वचन सबतें बुरा जारि करै सब छार
साधु वचन जल रूप है बरसै अमृत धार
धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा ॠतु आए फल होय
देवी बड़ी ना देवता सूरज बड़ा ना चन्द
आदि अंत दोनों बड़े के गुरु के गोविन्द
माला फेरूँ ना हरी भजूं मुख से कहूँ ना राम
मेरे हरी मोको भजें तब पाऊं विश्राम
प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय
कबीर लहरि समंद की मोती बिखरे आई.
बगुला भेद न जानई हंसा चुनी-चुनी खाई
भय से भक्ति करें सबै भय से पूजा होए
भय पारस है जीव को निर्भय होए ना कोए
शब्द बराबर धन नहीं जो कोई जाने बोल
हीरा तो दामों मिलें शब्द मोल ना तोल
जब गुण को गाहक मिले तब गुण लाख बिकाई.
जब गुण को गाहक नहीं तब कौड़ी बदले जाई
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा तुर्क कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए मरम न कोउ जाना
घूँघट का पट खोल रे तोको पीव मिलेगे
घट घट मे वह सांई रमता कटुक वचन मत बोल रे
धन जोबन का गरब न कीजै झूठा पचरंग चोल रे
सुन्न महल मे दियना बारिले आसन सों मत डोल रे
जागू जुगुत सों रंगमहल में पिय पायो अनमोल रे
कह कबीर आनंद भयो है बाजत अनहद ढोल रे
अरे दिल
प्रेम नगर का अंत न पाया ज्यों आया त्यों जावैगा
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता या जीवन में क्या क्या बीता
सिर पाहन का बोझा लीता आगे कौन छुड़ावैगा
परली पार मेरा मीता खडि़या उस मिलने का ध्यान न धरिया
टूटी नाव, उपर जो बैठा गाफिल गोता खावैगा
दास कबीर कहैं समझाई अंतकाल तेरा कौन सहाई
चला अकेला संग न कोई किया अपना पावैगा
लूट सके तो लूट ले राम नाम की लूट
पाछे फिरे पछताओगे प्राण जाहिं जब छूट
तिनका कबहु ना निंदये जो पाँव तले होय
कबहुँ उड़ आँखो पड़े पीर घानेरी होय
जहाँ दया तहा धर्म है,जहाँ लोभ वहां पाप
जहाँ क्रोध तहा काल है जहाँ क्षमा वहां आप
मिरन सूरत लगाईं के मुख से कछु न बोल
बाहर के पट बंद कर अन्दर के पट खोल
राम बुलावा भेजिया दिया कबीरा रोय
जो सुख साधू संग में सो बैकुंठ न होय
मांगन मरण सामान है मत मांगो कोई भीख
मांगन से मरना भला ये सतगुरु की सीख
चदरिया झीनी रे झीनी
चदरिया झीनी रे झीनी राम नाम रस भीनी
चदरिया झीनी रे झीनी
कबीरा जब हम पैदा हुए,जग हँसे,हम रोये
ऐसी करनी कर चलो,हम हँसे,जग रोये
अष्ट कमल का चरखा बनाया,पांच तत्व की पूनी
नौ दस मास बुनन को लागे,मूरख मैली किन्ही
जब मोरी चादर बन घर आई,रंगरेज को दीन्हि
ऐसा रंग रंगा रंगरे ने,के लालो लाल कर दीन्हि
चादर ओढ़ शंका मत करियो,ये दो दिन तुमको दीन्हि
मूरख लोग भेद नहीं जाने,दिन-दिन मैली कीन्हि
ध्रुव-प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी चदरिया, शुकदे में निर्मल कीन्हि
दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,ज्यूँ की त्यूं धर दीन्हि
चदरिया झीनी रे झीनी ...
पानी बिच मीन पियासी। मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ग्यान बिना सब सूना, क्या मथुरा क्या कासी ।
घर में वसत धरीं नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी ।।
मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी ।
कहत कबीर, सुनौ भाई साधो, सहज मिले अविनासी ।।
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी.
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।
करम गति टारै नाहिं टरी ॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि ।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी ॥ १॥
कहॅं वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहॅं वह मिरग चरी ।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि ॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी ।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही ॥ ३॥